22 October, 2009

आज का कमाल देखना चाहेंगे?

ज़रा क्लिक करें ।

16 October, 2009

विश्व खाद्य दिवस - 16 अक्तूबर , 2009

11 October, 2009


कुँवर नारायन जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।

41 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी के प्रमुख कवि कुँवर नारायन जी को दिल्ली में हमारे रष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील ने पिछ्ले मँगलवार को प्रदान किया। सँसद के पुस्तकालय के बालयोगी मंच में यह कार्य संपन्न हुआ।
कुँवर नारायन जी का जन्म 19 सितंबर, 1927 को हुआ था। अब वे अपनी पत्नी और पुत्र के साथ दिल्ली में रहते हैं ।



उनकी कुछ रचनाएँ :-

चक्रव्यूह (1956)
तीसरा सप्तक (1959)
परिवेश : हम - तुम (1961)
आत्मजयी (1965)
आकारों के आसपास (1973)
अप्ने सामने (1979)
कोई दूसरा नहीं (1993)
आज और आज से पहले (1998)
मेरे साक्षात्कार (1999)
इन दिनों (2002)
साहित्य के कुछ अंतर - विषयक संदर्भ (2003)
वाजश्रवा के बहाने (2008)

भारत ने इस महान रचनाकार को इन पुरस्कारों से सम्मानित किया है:-

'आत्मजयी' के लिए हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1971)
'आकारों के आसपास ' के लिए प्रेमचंद पुरस्कार (1973)
'अपने सामने' के लिए कुमारनाशान पुरस्कार (1982) और तुलसी पुरस्कार (1982)
हिंदी संस्थान पुरस्कार(1987)
'कोई दूसरा नहीं' के लिए व्यास पुरस्कार (1995), भवानी प्रसाद मिश्रा पुरस्कार (1995), शतदल पुरस्कार (1995) और साहित्य अकदमी पुरस्कार (1995)
लोहिया पुरस्कार (2001)
कबीर पुरस्कार (2001)
शलाका पुरस्कार (2006)
और अब ज्ञानपीठ पुरस्कार (2008)

आईए उनकी एक कविता पढें :-

क्या वह नहीं होगा ??

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी ?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाज़ारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम ?

क्या वे खरीद ले जाएँगे
हमारे बच्चों के दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जाएँगे हमारा सोना
हमें दिखलाकर काँच के चमकते टुकडे ?

और हम क्या इसी तरह
पीढी - दर - पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खंडहर
अपने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे ?


(कविता का मलयालम रूप देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें।)

06 October, 2009

जंगली जीव सप्ताह (अक्तूबर 2 से अक्तूबर 9 तक)
हर अक्तूबर के पहले हफ़्ते हम जंगली जीवों की संरक्षण के लिए मनाते हैं। वे जानवर और वनस्पति जो मानव नहीं पालते या खेती नहीं करते उनको ही हम जंगली जीव कहते हैं। इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना और उनके सहारे ही मानव की सुरक्षा हो सकती है, यह बोध होने के लिए ही हम इस प्रकार का एक हफ्ता मनाते आ रहे हैं। सिर्फ जंगलों में ही नहीं, हमारे घरों में और हमारे आस-पास कई ऐसे जानवर रहते है, जिसे हम ज़्यादा ध्यान नहीं देते। गिलहरी, चूहा, मेंढक, नेवला, मगर, अनेक प्रकार के साँप, तितलियाँ, सुअर आदि हमारे आस-पास दिखाई देनेवाले ऐसे जानवर है, जिन्हें हम बिना कोई कारण के नाश करते हैं। ये बेचारे जानवर के मुख्य प्रश्न क्या क्या हैं, उनका संरक्षण कैसे करें, इस के लिए हमारे देश के नियम क्या क्या हैं आदि बातों की जानकारी छात्रों को देने के लिए ही हम ऐसा एक प्रमुख हफ्ता मनाते आ रहे हैं।
जंगली जीव सप्ताह की प्रतिज्ञा
केरल के जंगल, नदियाँ, जंगली जीव आदि सब हमारी संपत्ती है, स्थिरता है, अभिमान है। ये सब आनेवाली पीढियों का हक हैं। इनको बिगाडने के लिए हम किसी भी शक्ती को मौका नहीं देंगे। हम इस धरती पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने देश के जंगल, जलस्रोत और हरीतिमा को कायम रखेंगे।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।

05 October, 2009

आज का मानव (जगदीशचंद्र जीत)
मानव मनु की संतान
आज कितना स्वार्थी है
अकेला खाता है।
अकेला पीता है
पास में पडोसी
कितने दिन से भूखा-नंग
पडा हो
मरा हो
कौन जाने?
परिवार के दो-चार सदस्यों की
उदर-पूर्ति में
समझता है आज का मानव
अपने जीवन का कल्याणमय लक्ष्य।
और -
हाँकता है डींग सभ्यता के विकास की
पहनकर दो-चार उजले कपडों को।
जीने को सब जीते हैं
मानव भी
पशु भी
लेकिन अंतर होता है दोनों में -
जीने का
बुद्धी का
और -
क्रिया शक्ति का
जो नहीं रहा आज के मानव में ।


(कविता का मलयालम रूप देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें ।)

04 October, 2009

मोहन राकेश जी के बारे में कुछ बातें…


इनका जन्म 8 जनवरी, 1925 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। ये ' नई कहानी ' के वरिष्ठ लेखक हैं। न आनेवाला कल, अन्धेरे बन्द कमरे, अन्तराल, बकलामा खुदा आदि उनके उपन्यास हैं। इन्होंने कई नाटक भी लिखे हैं - आधे अधूरे, लहरों के राजहँस, आषाढ का एक दिन आदि और मोहन राकेश के संपूर्ण नाटक में अन्य नाटक संकलित है। उनकी कहानियाँ दस प्रतिनिधी कहानियाँ और रात की बाहों में हैं। इन्होंने दो संस्कृत नाटकों का अनुवाद भी किये हैं शाकुँतलम और ...
उनका निधन 3 जनवरी, 1972 को हुआ था।
उनकी एक डायरी देखें…










उनकी किताबें…



राष्ट्रीय रक्तदान दिन ।


रक्त की विशेषताएँ क्या क्या हैं?
रक्त एक तरल संयोजी ऊतक है जो रक्त वाहिनियों के अंदर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर रक्त विद्यमान रहता है।



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रक्तदान जीवनदान है, क्यों?
प्लाज़मा के सहारे रक्तकण सारे शरीर में पहूँच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। श्वेत रक्त कणिकाएँ हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जीवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्यों में रक्त ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। रक्त के सहारे ही मनुष्य में जीवन कायम रखता है। दुर्खटनाओं या कुछ बीमारियों के कारण मनुष्य में रक्त की कमी हो सकती है। इससे बचने के लिए हम दूसरों को रक्तदान कर सकते हैं। दूसरों का जीवन बनाए रखना भाईचारा है, मानवता है। हर स्वस्थ मनुष्य महीने में एक बार रक्तदान कर सकता है। खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता भी होती है।


02 October, 2009

भारत के राष्ट्रपिता गाँधीजी का जन्मदिन
2 अक्तूबर, 1869 - 30 जनवरी, १९४८

01 October, 2009

आज वृद्ध दिवस।
हमारे बुज़ुर्गों के लिए हम क्या क्या कर सकते हैं???



निराला जी की एक सुंदर कविता है
"तोड़ती पत्थर" ।
आइए अब देखें इसका मलयालम रूप :-

तोडती पत्थर (सूर्यकाँत त्रिपाठी निराला)


वह तोडती पत्थर ।
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर,
वह तोडती पत्थर ।
कोई न छायादार
पेड वह जिसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन ।
गुरु हथौडा हाथ।
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका, अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:-
वह तोडती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टी से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैं ने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
"मैं तोड़ती पत्थर !"