05 October, 2009

आज का मानव (जगदीशचंद्र जीत)
मानव मनु की संतान
आज कितना स्वार्थी है
अकेला खाता है।
अकेला पीता है
पास में पडोसी
कितने दिन से भूखा-नंग
पडा हो
मरा हो
कौन जाने?
परिवार के दो-चार सदस्यों की
उदर-पूर्ति में
समझता है आज का मानव
अपने जीवन का कल्याणमय लक्ष्य।
और -
हाँकता है डींग सभ्यता के विकास की
पहनकर दो-चार उजले कपडों को।
जीने को सब जीते हैं
मानव भी
पशु भी
लेकिन अंतर होता है दोनों में -
जीने का
बुद्धी का
और -
क्रिया शक्ति का
जो नहीं रहा आज के मानव में ।


(कविता का मलयालम रूप देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें ।)

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